सौर मंडल में ऐसे कई पिंड है जो बेढंगे अकार के होते है और तेज गति से सूरज की ओर आते है।जब यह सूरज के करीब आते है तो धीरे-धीरे अपने पदार्थ खो देते है।पिंडो के पिघलने की इस प्रक्रिया के कारण इन पिंडो की पूँछ का निर्माण होता है, जिसे हम आकाश में देखते है, इन्हें हैलोज़ कहा जाता है।ये पिंड सूरज के चारो ओर 100 या उससे ज्यादा परिक्रमा करने के बाद गायब हो जाते है, परन्तु नए पिंड आते ही रहते है।
हमारे सौर मंडल में ये पिंड क्या हैं ? ये कहाँ से आते हैं ? इनसे जुड़े हुए कुछ और भी प्रश्न है जैसे क्यों प्लूटो को कभी ग्रह समझा जाता था और अब बहिष्कृत कर दिया गया है ? ऑर्ट बादल क्या है ? क्या सौर मंडल में कोई नौवां ग्रह है ?
इन सवालों के जवाब के लिए हमे अतीत में सौर मंडल के बनने के पहले, यानी 4.5 अरब साल पीछे जाना होगा।सूरज गैसों की चपटी तस्तरी से हर तरफ से घिरा हुआ था, भीतरी ग्रह गरम, छोटे और पथरीले थे, जबकि बाहरी ग्रह ठन्डे और बड़े थे।सौर मंडल के अन्य हिस्से जल, धूल और अन्य अवयव जैसे मीथेन और अमोनिया के साथ मिश्रित बर्फ की शक्ल में थे।ये तश्तरियां आपस में टकरायी और एक साथ जुड़कर अंदरूनी हिस्सों में बड़ी होने लगी, बृहस्पति भी इसी तरह से बना एक नवजात विशाल ग्रह था।बाहरी ग्रहों में काफी ज्यादा ग्रुत्वाकर्ष्ण था।बर्फीले पिंडो को इन गैस दैत्यों (विशेषकर बृहस्पति) के ग्रुत्वाकर्ष्ण ने बिखेर दिया।
ये बर्फीले पिंड या तो ग्रहों की ओर उछाल दिए जाते थे या विभिन्न कक्षाओं में धकेल दिए जाते थे, जैसे ये या तो सूरज की ओर उछाल दिए गए होंगे या दूर अन्तरिक्ष में बिखेर दिए गए होंगे।खरबों की संख्या में ये पिंड नष्ट भी हुए।इन बर्फीले पिंडो के बिखरने के बाद ये पिंड तीन पट्टियों में वितरित हो गये।इनमे से पहला है, काईपर घेरा जो नेपच्यून के बाद शुरू होता है और सूरज से 4.5 से 7.5 अरब किमी की दूरी तक इसका विस्तार है।प्लूटो भी इसी घेरे का हिस्सा है।दूसरे ग्रहो की भाँति, इसे भी एक ग्रह समझा जाता था, पर बाद में यह पता चला कि यह काईपर घेरे का हिस्सा है।

दूसरी पट्टी, स्कैटर्ड डिस्क कहलाती है।यह नेपच्यून द्वारा उत्सर्जित किये गए बर्फीले गोलों का बना है।यह काईपर घेरे के भीतरी किनारे को आच्छादित करता है और सूरज से 150 अरब किमी दूर तक इसका विस्तार है।
आखिर में, इन दो पट्टियों से परे है, बर्फीले पिंडो का एक गोलाकार बादल जो सूरज से 300 अरब किमी दूरी पर आरम्भ होता है; यानी 2000 एस्ट्रोनोमिकल यूनिट (1 अ.यू = धरती और सूरज के बीच की दूरी ) और सम्भवत: इसकी चौडाई 1 प्रकाश वर्ष है।
इस विशाल गोलाकर बादल को ही ऑर्ट बादल कहा जाता है।

ऑर्ट बादल डच खगौलशास्त्री यान ऑर्ट के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने 1950 में इसके सिद्धांत की परिकल्पना की थी।लेख के शुरू में जिन आकाशीय पिंडो की बात की गयी थी, आप जानते ही होंगे की वे धूमकेतु कहलाते हैं।धूमकेतु दो प्रकार के होते है – पहला जिनका कक्षीय काल 200 वर्ष से कम का होता है और दूसरा जिनका कक्षीय काल इससे ज्यादा होता है।यान ऑर्ट यह जानने का प्रयास कर रहे थे कि लम्बी अवधि वाले धूमकेतु कहाँ से आते हैं, जो मुख्यत: दीर्घ वृत्ताकार कक्षा का अनुसरण करते हैं।छोटे कक्षीय काल धूमकेतु बाकी के दो पट्टियों, विशेषकर स्कैटर्ड डिस्क से आते हैं।
ऑर्ट ने गणना की कि यह लम्बे अवधि वाले धूमकेतु जिनकी कक्षाएं बड़ी और अत्यंत विशाल है , धूमकेतुओं के कोष से आते होंगे, जो सौर मंडल के छोर पर है।ये धूमकेतु अंदरूनी सौर मंडल में तब आते होंगे जब गुजरता तारा या आकाश गंगा का ग्रुत्वाकर्ष्ण इन्हें अंदर धकेल देता होगा।
अब तक यह बात स्पष्ट हो गयी होगी कि ऑर्ट बादल की अवधारणा प्राक्कल्पनात्मक है।इसके अभी तक प्राक्कल्पनात्मक होने का कारण है इसका अभी तक प्रमाण नही मिलना।एक अनुमान के मुताबिक नासा के वोएजर-1 को अपनी मौजूदा गति 10 लाख मील प्रति दिन पर चलते हुए भी ऑर्ट बादल तक पहुँचने में 300 साल लगेंगे और 30,000 साल और लगेंगे अगले छोर तक पहुँचने में।हम इस सिद्धांत में इसलिए विश्वास करते है क्योंकि ऑर्ट बादल को निर्दिष्ट करने से हमे ऐसे बहुत से जरुरी सवालों के जवाब मिलते है, जो पहले अनुत्तरित थे।
ऑर्ट बादल में दो खरब बर्फीले पिंड है जो बर्फ, धूल, अमोनिया, मीथेन, कार्बन डाई ऑक्साइड इत्यादि से बने हुए है।ऑर्ट बादल के बारे में यह धारणा है कि यह दो अंशों से बना है – पहला, एक बाहरी गोलाकार ऑर्ट बादल (20,000 से 50,000 अ.यू ) और दूसरा, एक तश्तरी की आकृति वाला ऑर्ट बादल जिसे हिल्स बादल कहते है।बाहरी बादल में खरबों ऐसे पिंड हो सकते है, जिसका व्यास 1 किमी से ज्यादा है और ऐसे अरबो पिंड हो सकतेहै जिनका व्यास 20 किमी से ज्यादा है।
ज्यादातर अध्ययन अतीत में देखे गये सूरज के करीब से होकर गुजरने वाले धूमकेतुओं से मिले डाटा पर आधारित है।वे सूरज के चक्कर काटते है और बिना किसी अधिमानित अभिविन्यास के बेतरतीब दिशाओं से हमारे सौर मंडल में प्रवेश करते है।उनका कक्षीय समय 1000 वर्ष से भी ज्यादा हो सकता है।वे सूरज के इर्द गिर्द लगभग पलायन वेग से घूमते है और उनकी कक्षा करीब-करीब परावलयिक होती है।हेलीज़ कॉमेट, जिसे अगर बाहरी ऑर्ट बादल का हिस्सा माना जाता है, इसका वजन पांच धरतियों के बराबर है, बाहरी ऑर्ट बादल के बर्फीले पिंडो के वजन का अनुमान लगाना सम्भव है।अंदरूनी ऑर्ट बादल के पिंडो के वजन का अनुमान अभी तक नही लगाया जा सका है।हेल बोप ऐसा ही एक बाहरी ऑर्ट बादलीय धूमकेतु है।
बीते दशको में, दो ऐसे पिंडो का पता लगाया गया है, जो अंदरूनी ऑर्ट बादल के पिंड हो सकते है।सेडना, जिसे 2003 में ढूंढा गया, जब अपने परिभमन कक्ष के दूरतम बिंदु पर होता है तो सूरज से 140 अरब किमी की दूरी पर होता है और दूसरा है , VP-113।दोनो ही दीर्घ वृत्तीय कक्षा का अनुसरण करते है।

हालांकि, इन दीर्घ वृत्तीय कक्षाओं के चरित्र से कुछ नई चीजे भी इंगित होती है।एक सिद्धांत के अनुसार सूरज ने दूसरे तारों की बाहरी तश्तरियों से ये धूमकेतु चुराए होंगे, ऐसे तारे जो उसी निहारिका में निर्मित हुए होंगे जिसमे सूरज था।एक दूसरा निरूपण यह भी है कि नेपच्यून के परे एक दूसरा दैत्याकार ग्रह है जो अपनी शक्तिशाली घुरुत्वकर्षण बल के द्वारा कुछ अड़ोस-पड़ोस के भीतरी ऑर्ट बादलीय पिंडो को भटकाकर ऐसे ही दीर्घ वृतीय कक्षा में डाल देता है।

कुल मिलाकर, ऑर्ट बादल की अवधारणा ने वैज्ञानिको को कुछ गम्भीर प्रश्नों के उत्तर देने के काबिल बनाया है।परन्तु, कौन जनता है , हो सकता यह सही हो या नही भी हो।जो भी हो परन्तु इसने हमारे सौर मंडल की यात्रा और धूमकेतुओं के होने के संभावित कारणों को समझाया है।
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